Friday, 31 March 2017

पंचमकार रहस्य

पुनर्प्रेषित. (पञ्च मकार साधन रहस्य ....... यह लेख पिछले चार वर्षों में मैं तीन-चार बार पोस्ट कर चुका हूँ| एक मित्र के अनुरोध पर पुनश्चः प्रस्तुत कर रहा हूँ| साथ साथ दो विद्वानों की टिप्पणियाँ भी संलग्न हैं जो सारे संशय दूर देती हैं|)
पञ्च मकार साधन रहस्य .......
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तंत्र साधना में पञ्च मकारों का बड़ा महत्व है| पर जितना अर्थ का अनर्थ इन शब्दों का किया गया है उतना अन्य किसी का भी नहीं| इनका तात्विक अर्थ कुछ और है व शाब्दिक कुछ और| इनके गहन अर्थ को अल्प शब्दों में व्यक्त करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया उनको लेकर दुर्भावनावश कुतर्कियों ने सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया है| मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन ये पञ्च मकार हैं|
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कुलार्णव तन्त्र के अनुसार --
"मद्यपानेन मनुजो यदि सिद्धिं लभेत वै|
मद्यपानरता: सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामरा:||
मांसभक्षेणमात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत|
लोके मांसाशिन: सर्वे पुन्यभाजौ भवन्तु ह||
स्त्री संभोगेन देवेशि यदि मोक्षं लभेत वै|
सर्वेsपि जन्तवो लोके मुक्ता:स्यु:स्त्रीनिषेवात||"
मद्यपान द्वारा यदि मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर ले तो फिर मद्यपायी पामर व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर ले| मांसभक्षण से ही यदि पुण्यगति हो तो सभी मांसाहारी ही पुण्य प्राप्त कर लें| हे देवेशि! स्त्री-सम्भोग द्वारा यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर सभी स्त्री-सेवा द्वारा मुक्त हो जाएँ|
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(1) आगमसार के अनुसार मद्यपान किसे कहते हैं ----
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
हे वरानने! ब्रह्मरंध्र यानि सहस्त्रार से जो अमृतधारा निकलती है उसका पान करने से जो आनंदित होते हैं उन्हें ही मद्यसाधक कहते हैं|
ब्रह्मा का कमण्डलु तालुरंध्र है और हरि का चरण सहस्त्रार है| सहस्त्रार से जो अमृत की धारा तालुरन्ध्र में जिव्हाग्र पर (ऊर्ध्वजिव्हा) आकर गिरती है वही मद्यपान है|
इसीलिए ध्यान साधना हमेशा खेचरी मुद्रा में ही करनी चाहिए|
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(२) आगमसार के अनुसार--
"माँ शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना प्रियान |
सदा यो भक्षयेद्देवि स एव मांससाधक: ||"
अर्थात मा शब्द से रसना और रसना का अंश है वाक्य जो रसना को प्रिय है| जो व्यक्ति रसना का भक्षण करते हैं यानी वाक्य संयम करते हैं उन्हें ही मांस साधक कहते हैं| जिह्वा के संयम से वाक्य का संयम स्वत: ही खेचरी मुद्रा में होता है| तालू के मूल में जीभ का प्रवेश कराने से बात नहीं हो सकती और इस खेचरीमुद्रा का अभ्यास करते करते अनावश्यक बात करने की इच्छा समाप्त हो जय है इसे ही मांसभक्षण कहते हैं|
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(३) आगमसार के अनुसार --
"गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा|
तौ मत्स्यौ भक्षयेद यस्तु स: भवेन मत्स्य साधक:||"
अर्थान गंगा यानि इड़ा, और यमुना यानि पिंगला; इन दो नाड़ियों के बीच सुषुम्ना में जो श्वास-प्रश्वास गतिशील है वही मत्स्य है| जो योगी आतंरिक प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना में बह रहे प्राण तत्व को नियंत्रित कर लेते हैं वे ही मत्स्य साधक हैं|
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(४) आगमसार के अनुसार चौथा मकार "मुद्रा" है --
"सहस्त्रारे महापद्मे कर्णिका मुद्रिता चरेत|
आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपमं||
सूर्यकोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलं|
अतीव कमनीयंच महाकुंडलिनियुतं|
यस्य ज्ञानोदयस्तत्र मुद्रासाधक उच्यते||"
सहस्त्रार के महापद्म में कर्णिका के भीतर पारद की तरह स्वच्छ निर्मल करोड़ों सूर्य-चंद्रों की आभा से भी अधिक प्रकाशमान ज्योतिर्मय सुशीतल अत्यंत कमनीय महाकुंडलिनी से संयुक्त जो आत्मा विराजमान है उसे जिन्होंने जान लिया है वे मुद्रासाधक हैं|
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(५) शास्त्र के अनुसार मैथुन किसे कहते हैं अब इस पर चर्चा करते हैं|
आगमसार के अनुसार --
(इस की व्याख्या नौ श्लोकों में है अतः स्थानाभाव के कारण उन्हें यहाँ न लिखकर उनका भावार्थ ही लिख रहा हूँ)
मैथुन तत्व ही सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कारण है| मैथुन द्वारा सिद्धि और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है|
नाभि (मणिपुर) चक्र के भीतर कुंकुमाभास तेजसतत्व 'र'कार है| उसके साथ आकार रूप हंस यानि अजपा-जप द्वारा आज्ञाचक्र स्थित ब्रह्मयोनि के भीतर बिंदु स्वरुप 'म'कार का मिलन होता है|
ऊर्ध्व में स्थिति प्राप्त होने पर ब्रह्मज्ञान का उदय होता है, उस अवस्था में रमण करने का नाम ही "राम" है|
इसका वर्णन मुंह से नहीं किया जा सकता| जो साधक सदा आत्मा में रमण करते हैं उनके लिए "राम" तारकमंत्र है|
हे देवि, मृत्युकाल में राम नाम जिसके स्मरण में रहे वे स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाते हैं|
यह आत्मतत्व में स्थित होना ही मैथुन तत्व है| अंतर्मुखी प्राणायाम आलिंगन है| स्थितिपद में मग्न हो जाने का नाम चुंबन है| केवल कुम्भक की स्थिति में जो आवाहन होता है वह सीत्कार है| खेचरी मुद्रा में जिस अमृत का क्षरण होता है वह नैवेद्य है|
अजपा-जप ही रमण है| यह रमण करते करते जिस आनंद का उदय होता है वह दक्षिणा है|
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यह ‪पंचमकार‬ की साधना भगवान शिव द्वारा पार्वती जी को बताई गयी है|
संक्षिप्त में आत्मा में यानि राम में सदैव रमण ही तंत्र शास्त्रों के अनुसार मैथुन है न कि शारीरिक सम्भोग|
(Note: यह साधना उन को स्वतः ही समझ में आ जाती है जो नियमित ध्यान साधना करते हैं| योगी नाक से या मुंह से सांस नहीं लेते| वे सांस मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में लेते है| नाक या या मुंह से ली गई सांस तो एक प्रतिक्रया मात्र है उस प्राण तत्व की जो सुषुम्ना में प्रवाहित है| जब सुषुम्ना में प्राण तत्व का सञ्चलन बंद हो जाता है तब सांस रुक जाति है और मृत्यु हो जाती है| इसे ही प्राण निकलना कहते हैं| अतः अजपा-जप का अभ्यास नित्य करना चाहिए|)
ॐ तत्सत्|
‪कृपाशंकर‬
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(AA) उपरोक्त लेख पर मान्यवर श्री मिथिलेश द्विवेदी जी की टिपण्णी ......
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सादर नमन मान्यवर, 'पंच मकार' के रहस्य का अज्ञान भी इसके विषय में अनेक भ्रमों का उत्पादक है। आपके विवेचन के बाद कुछ भी लिखना अटपटा ही लगता है। फिर भी आपके आशीष का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। क्षमा करेंगे।
सनातन धर्म में एक खासियत है - तन्त्र विद्या। यह विद्या और किसी धर्म में नहीं पायी जाती। तन्त्र के द्वारा सारी सुख सुविधाओं को भोगते हुए अंतत: परमात्मा को पाना तन्त्र विद्या का सार है। तन्त्र सिद्धियों के द्वारा सारी भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त होती हैं। पंच मकार : मैथुन, मध, मांस, मत्स्य और मुद्रा इन पांचो पर टिका है तन्त्र। मैथुन क्या है? खुद का परमात्मा में रमण करना हीं मैथुन है। आज इसे गलत रूप में दिखाया या समझाया जा रहा है। तन्त्र का गहन अध्यन करने वाले आगम शास्त्रों के आधार पर मैथुन का यही अर्थ बताते हैं, हमेशा परमात्मा के साथ रमण का सुख भोगना हीं मैथुन है। वर्तमान में मैथुन का गलत अर्थ लगाया जाता है।
मध है हमेशा परमात्मा रूपी शराब का नशा करना। आगम तंत्रों के अनुसार मष्तिष्क में बिंदु रूपी स्थान से हमेशा अमृत बरसता रहता है योगी लोग उसी का पान अनवरत करते हैं जो मध से लाख गुना बेहतर और आनन्दायक होता है। वर्तमान में मध का अर्थ भी गलत लगाया जाता है।
मांस आगम तंत्रों के अनुसार मौन को मांस कहा गया है। मौन में अदभुत शक्ति है। मौन स्वयं से साक्षात्कार कराने में सहायक है। स्वयं में परमात्मा का दीदार होता है। मौन की महता समझने के लिए दो चार दिन मौन रह कर अवश्य देखें। वर्तमान में मांस का भी गलत अर्थ लगाया जाता है।
मत्स्य-आगम तंत्रों के अनुसार इडा ( बायाँ नासिका ) और पिंगला ( दायाँ नासिका ) से स्वास का लेना हीं ये दो मत्स्य हैं। योगिगन इन दोनों नासिकाओं के स्वांसो का विलय कर के सुषुम्ना नाडी ( दोनों नासिकाओं से साँसों का साथ साथ चलना ) को चलाते हैं जिससे कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने में मदद मिलती है। इसका भी वर्तमान में गलत अर्थ लिया जाता है।
मुद्रा - हांथो की उंगलियों से तथा विभिन्न भाव भंगिमाओं के द्वारा मुद्रा का प्रदर्शन होता है। इसका भी गूढ़ अर्थ है। विशेष मुद्राओं से इष्ट प्रसन्न होतें हैं। इसमें अभी विकृति नहीं आई है जो की प्रसन्नता की बात है।
तन्त्र वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित एक गूढ़ विद्या है जिसका उल्लेख किसी अन्य धर्म में मेरे देखने-सुनने में नहीं मिला है। (साभार मान्यवर मिथिलेश द्विवेदी जी)
June 11, 2013 at 10:41pm
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(BB) उपरोक्त लेख पर मान्यवर श्री विकास त्यागी जी की टिपण्णी .......
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पूज्यवर कुछ दिन पहले एक ग्रुप मैं मैंने एक पोस्ट दी थी... आज पुनः उसे यहाँ रखा रहा हूँ....
कई बार मन में जिज्ञाषा उठती है की क्या क्या पञ्च मकार के बिना तंत्र की सिद्धि संभव है... सभी एक मत से मानते है की नहीं पञ्च मकार तंत्र का अकाट्य अंग है... कहा भी गया है....
मध् मासं च मीन च मुद्रा मैथुन्मेव च,
मकार पंचक प्राहुर्योगिना मुक्तिदायाकम...
तो क्या पुर्णतः सात्विक रहकर सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते... आईये देखते है कुछ प्राचीन तंत्र ग्रन्थ क्या कहते हैं इस विषय मैं...
सबसे पहले मध् के विषय में :-
जिह्वाया गल्संयोगात पिबेत्ताम्रितम तदा,
योगिभि पिबते तत्तु न मध् गोड पेसटीकम .... ( गन्धर्व तंत्र )
यहाँ बताया गया है की मध् ब्रह्म रंध्र से बहकर आता है जिसका योगीजन पान किया करते है (खेचरी मुद्रा के विषय में आप सभी जानते हैं ) न की गुड और पिसटी से बना पेय (सूरा या शराब)
इसी प्रकार मांस के सम्बन्ध मैं कुलार्णव तंत्र में कहा गया है.:-
पुन्यापुन्ये पशु हत्वा ज्ञान खडगएन योगवित,
परे लयम नायेच्चितम मांसाशी सो निगधते ...
पुण्य और पाप रूपी पशुओ की ज्ञान रूपी खडग से हत्या कर उनका भक्षण अर्थात अर्थात उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देना...
मीन के सम्बन्ध में आगम सार में लिखा है... :-
मनसादी इन्द्रियगनम संयम यात्मानी योजयेत,
सा मीनाशी भवेद देवी इतरे प्राण घातका,
गंगा यामुन्योर्मध्य द्वो मत्स्यो चरत सदा ,
तौ मतस्यो भक्ष्येस्तु स भवेन मतस्य साधकं ...
अर्थात ध्यान के द्वारा इडा (गंगा ) और पिंगला (यमुना ) में विचरण करने वाली स्वास प्रस्वास पर विजय...
इसी प्रकार मुद्रा के विषय विजय तंत्र मैं कहा गया है... :-
असत संगती मुद्रानम तन मुद्रा परिकीर्तिता,
सतसंगें भावेंमुक्ति असत्संगेनु बन्धनं...
अर्थात दुष्टो की संगती रूपी बंधन से बचे रहना ही मुद्रा है...
यामल तंत्र में मैथुन के विषय में कहा गया है...:-
शहस्त्रारे बिन्दु कुंडली मिलानाछिवे ,
मैथुनम परम दिव्यं यातिनाम परिकीर्तितं ....
अर्थात मूलाधार से उठकर कुंडलिनी रूपी शक्ति का शहस्त्रार स्थित परम ब्रह्म शिव से सायुज्य ही मैथुन है...
इन ग्रंथो मैं उपरोक्त विषय और विस्तार से बताया गया है ... लेकिन मेरा उद्देश्य इतने से ही पूर्ण हो जाता है...
वास्तव मैं इस सागर में मोती ही मोती भरे पड़े है आवश्यकता है तो बस गहरा गोता लगाने की....
(श्लोक टाइप करने में थोड़ी त्रुटी हो गयी है... यहाँ उचित शब्दों का अभाव है... अर्थ भी मैंने अपनी भाषा में ही लिख दिया है...केवल भावार्थ लिख दिया है .... )
इसका अर्थ कृपया ये न लगाएं में वाम मार्गी साधनाओं में उपयोगी पञ्च मकारों का विरोधी हूँ... उनमे भी मेरी पूर्ण सृद्धा है...
जय माँ आदिशक्ति (साभार विकास त्यागी)

Wednesday, 15 March 2017

जीवात्मा , तृषित

🌻जीवात्मा
1) जीवात्मा किसे कहते है ?
उत्तर = एक ऐसी वस्तु जो अत्यंत सूक्ष्म है, अत्यंत छोटी है , एक जगह रहने वाली है, जिसमें ज्ञान अर्थात् अनुभूति का गुण है, जिस में रंग रूप गंध भार (वजन) नहीं है, कभी नाश नहीं होता, जो सदा से है और सदा रहेगी, जो मनुष्य-पक्षी-पशु आदि का शरीर धारण करती है तथा कर्म करने में स्वतंत्र है उसे जीवात्मा कहते हैं ।
2) जीवात्मा के दुःखों का कारण क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा के दुःखों का कारण मिथ्याज्ञान है ।
3) क्या जीवात्मा स्थान घेर सकती है ?
उत्तर = नहीं, जीवात्मा स्थान नहीं घेरती । एक सुई की नोक पर विश्व की सभी जीवात्माएँ आ सकती हैं ।
4) जीवात्मा का प्रलय मे क्या स्थिति होती है । क्या उस समय उसमें ज्ञान होता है ?
उत्तर = प्रलय अवस्था मे बद्ध जीवात्माएँ मूर्च्छित अवस्था में रही है । उसमें ज्ञान होता हे परंतु शरीर, मन आदि साधनो के अभाव से प्रकट नहीं होता ।
5) प्रलय काल मे मुक्त आत्माएं किस अवस्था में रहती है ?
उत्तर = प्रलय काल में मुक्त आत्माएँ चेतन अवस्था मे रहती है और ईश्वर के आनन्द में मग्न रहती है ।
6) जीवात्मा के पर्यायवाची शब्द क्या क्या है ?
उत्तर = आत्मा, जीव, इन्द्र, पुरुष, देही, उपेन्द्र, वेश्वानर आदि अनेक नाम वेद आदि शास्त्र में आये हैं ।
7) क्या जीवात्मा अपनी इच्छा से दुसरे शरीर मे प्रवेश कर सकता है ?
उत्तर = नहीं कर सकता ।
8) मुक्ती का समय कितना है ?
उत्तर = 1 महाकल्प - ऋग्वेद = 1 मंडल 24 सूक्त 2 मन्त्र । 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष मुक्ति का समय है ।
9) जीवात्मा स्त्री है या पुरुष है या नपुंसक है ?
उत्तर = जीवात्मा तीनो भी नहीं । ये लिंग तो शरीरों के हैं ।
10) क्या जीवात्मा ईश्वर का अंश है ?
उत्तर = नहीं , जीवात्मा ईश्वर का अंश नहीं है । ईश्वर अखण्ड है उसके अंश= टुकडे नहीं होते है ।
11) क्या जीवात्मा का कोई भार, रुप, आकार, आदि है ?
उत्तर = नहीं ।
12 ) जीवात्मा की मुक्ती एक जन्म में होती है या अनेक जन्म मे होती है ?
उत्तर = जीवात्मा की मुक्ती एक जन्म मे नहीं अपितु अनेक जन्मो मे होती है ।
13) क्या जीवात्मा मुक्ती मे जाने के बाद पुनः संसार में वापस आता है ?
उत्तर = जी हाँ । जीवात्मा मुक्ति में जाने का बाद पुनः शरीर धारण करने के लिए वापस आता है ।
14) जीवात्मा के लक्षण क्या है?
उत्तर = जीवात्मा के लक्षण इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, सुख, दुःख की अनुभूति करना है ।
15) मेरा मन मानता नहीं, यह कथन ठीक है ?
उत्तर = नहीं । जड़ मन को चलाने वाला चेतन जीवात्मा है ।
16) क्या जीवात्मा कर्मो का फल स्वयं भी ले सकता है ?
उत्तर = हाँ । जीवात्मा कुछ कर्मो का फल स्वयं भी ले सकता है जैसै चोरी का दण्ड भरकर । किंतु अपने सभी कर्मो का फल जीवात्मा स्वयं नहीं ले सकता है ।
17) क्या जीवात्मा कर्म करते हुऐ थक जाता है ?
उत्तर = नहीं, जीवात्मा कर्मो को करते हुवे थकता नहीं है अपितु शरीर, इन्द्रियाँ का सामर्थ्य घट जाता है ।
18) जीवात्मा में कितनी स्वाभाविक शक्तियाँ हैं ?
उत्तर = 24 स्वाभाविक शक्तियाँ हैं ।
19) शास्त्रों में आत्मा को जानना क्यों आवश्यक बताया गया है ?
उत्तर = जीवात्मा के स्वरूप को जानने से शरीर, इन्द्रिय और मन पर अधिकार प्राप्त हो जाता है , परिणाम स्वरुप आत्मज्ञानी बुरे कामों से बचकर उत्तम कार्यों को ही करता है ।
20) जीवात्मा का स्वरूप ( गुण, कर्म, स्वभाव, लम्बाई, चौड़ाई, परिमाण ) क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा अणु स्वरूप, निराकार, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान है, वह चेतन है और कर्म करने मे स्वतंत्र है, बाल की नोंक के दश हजारवें भाग से भी सूक्ष्म है । यह अपनी विषेश स्वतंत्र सत्ता रखता है ।
21) जीवात्मा शरीर मे कहाँ रहता हे ?
उत्तर = जीवात्मा मुख्य रूप से शरीर में स्थान विशेष जिसका नाम ह्रदय है, वहाँ रहता है किन्तु गौण रूप से नेत्र, कण्ठ इत्यादि स्थानों में भी वह निवास करता है ।
२२) क्या, मनुष्य, पशु पक्षी , किट पतंग आदि शरीरों में जीवात्मा भिन्न भिन्न होते है या एक ही प्रकार के होते है ?
उत्तर = आत्मा तो अनेक है किन्तु हर एक आत्मा एक सामान है | मनुष्य, पशु, पक्षी आदि किट पतंग के शरीरो में भिन्न-भिन्न जीवात्माएं नहीं किन्तु एक ही प्रकार के जीवात्माएं है | शरीरों का भेद है आत्माओ का नहीं |
२३) जीवात्मा शरीर क्यों धारण करता है? कबसे कर रहा है और कब तक करेगा ?
उत्तर = जीवात्मा, अपने कर्मफल को भोगने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए शरीर को धारण करता है संसार के प्रारम्भ से यह शरीर धारण करता आया है और जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं करता तब तक शरीर धारण करते रहेगा |
२४) क्या मरने के बाद जीव, भूत, प्रेत, डाकन आदि भी बनकर भटकता है ?
उत्तर = मरने के बाद जीव न तो भूत, प्रेत बनता है और न ही भटकता है | यह लोगों के ज्ञान के कारन बानी हुई मिथ्या मान्यता है |
२५) शरीर में जीवात्मा कब अत है ?
उत्तर = जब गर्भ धारणा होता है तभी जीवात्मा आ जाता है , अर्थात वह वीर्य में ही पहलेसे उपस्थित होता है , और जब रजवीर्य मिलते है तब | यह मिथ्या धारणाये है ३ रे महीने में अथवा ८ या ९ वे महीने में आता है |
२६) क्या जीव और ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है ? अथवा क्या ' आत्मा सो परमात्मा 'एक ही है ?
उत्तर = जीव और ब्रह्म एक ही नहीं है अपितु दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं जिनके गुण कर्म स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं | अतः यह मान्यता ठीक नहीं गलत है |
२७) क्या जीव ईश्वर बन सकता है ?
उत्तर = जीव कभी भी ईश्वर नहीं बन सकता है |
२८) क्या जीवात्मा एक वस्तु है ?
उत्तर = हाँ , जीवात्मा एक चेतन वस्तु है, वैदिक दर्शनों में वस्तु उसको कहा गया है, जिसमे कुछ गुण कर्म, स्वभाव होते हों |
२९) क्या जीवात्मा शरीर को छोड़ने में और नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र है ?
उत्तर = जीवात्मा को नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र नहीं है अपितु ईश्वर के अधीन है | ईश्वर जब एक शरीर में जीवात्मा का भोग पूरा हो जाता है तो जीवात्मा को निकल लेता है और उसे नया शरीर को प्रदान करता है | मनुष्य आत्मा हत्या करके शरीर छोड़ने में स्वतंत्र भी है |
३०) निराकार अणु स्वरुप वाला जीवात्मा इतने बड़े शरीरों को कैसे चलता है ?
उत्तर = जैसी बिजली बड़े=बड़े यंत्रों को चला देती है ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रुपी चुम्बकीय शक्ति से शरीरों को चला देता है |
३१) मनुष्य के मरने के बाद ८४ लाख योनियों में घूमने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है | क्या यह मान्यता सही है ?
उत्तर = नहीं, मनुष्य के मृत्यु के बाद तुरंत अथवा कुछ जन्मों के बाद ( अपने कर्फल भोग अनुसार ) मनुष्य जन्म मिल सकता है |
३२) शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) कितने समय में जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करता है ?
उत्तर = जीवात्मा शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार कुछ पलों में शिघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है | यह सामान्य नियम है |
३३) क्या इस नियम का कोई अपवाद भी होता है ?
उत्तर = जी हाँ , इस नियम का अपवाद होता है | मृत्यु पश्च्यात जब जीवात्मा एक शरीर को छोड़ देता है लेकिन अगला शरीर प्राप्त करने के लिए अपने कर्मोंनुसार माता का गर्भ उपलब्ध नहीं होता है तो कुछ समय तक ईश्वर की व्यवस्था में रहता है | पश्च्यात अनुकूल माता-पिता मिलने से ईश्वर की व्यवस्थानुसार उनके यहाँ जन्म लेता है |
३४) जीवात्मा की मुक्ति क्या है और कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर = प्रकृति के बंधन से छूट जाने और ईश्वर के परम आनंद को प्राप्त करने का नाम मुक्ति है | यह मुक्ति वेदादि शास्त्रों में बताये गए योगाभ्यास के माध्यम से समाधी प्राप्त करके समस्त अविद्या के संस्कारों को नष्ट करके ही मिलती है |
३५) मुक्ति में जीवात्मा की क्या स्थिति होती है, वह कहाँ रहता है? बिना शरीर इन्द्रियों के कैसे चलता, खाता, पिता है ?
उत्तर = मुक्ति में जीवात्मा स्वतंत्र रूप से समस्त ब्रम्हांड में भ्रमण करता है और ईश्वर के आनंद से आनंदित रहता है तथा ईश्वर की सहायता से अपनी स्वाभाविक शक्तियों से घूमने फिरने का काम करता है | मुक्त अवस्था में जीवत्मा को शरीरधारी जीव की तरह खाने पिने की आवश्यकता नहीं होती है |
३६) जीवात्मा की सांसारिक इच्छाये कब समाप्त होती है ?
उत्तर = जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है और संसार के भोगों से वैराग्य हो जाता है तब जीवात्मा की संसार के भोग पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छा ये समाप्त हो जाती हैं |
३७) जीवात्मा वास्तव में क्या चाहता है ?
उत्तर = जीवात्मा पूर्ण और स्थायी सुख , शांति, निर्भयता और स्वतंत्रता चाहता है |
३८) भोजन कौन खाता है शरीर या जीवात्मा ?
उत्तर = केवल जड़ शरीर भोजन को खा नहीं सकता और केवल चेतन जीवात्मा को भोजन की आवश्यकता नहीं है शरीर में रहता हुआ जीवात्मा मन इन्द्रियादि साधनों से कार्य लेने के लिए भोजन खाता है |
३९) एक शरीर में एक ही जीवात्मा रहता है या अनेक भी रहते हैं ?
उत्तर = एक शरीर में करता और भोक्ता एक ही जीवात्मा रहता है अनेक जीवात्माएं नहीं रहते | हाँ, दूसरे शरीर से युक्त दूसरा जीवात्मा तो किसी शरीर में रह सकता है, जैसे माँ के गर्भ में उसका बच्चा |
४० ) जीवात्मा शरीर में व्यापक है या एकदिशी ( एक स्थानीय ) ?
उत्तर = शरीर में जीवात्मा एकदेशी है व्यापक नहीं, यदि व्यापक होता तो शरीर के घटने बढ़ने के कारन यह नित्य नहीं रह पायेगा |
४१) जीव की परम उन्नति, सफलता क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा परम उन्नति आत्मा-परमात्मा का साक्षातकार करके परम शांतिदायक मोक्ष को प्राप्त करना है |
४२) क्या जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख अपने ही कर्मों के फल होते है ? या बिना ही कर्म किये दूसरों के कर्मों के कारन भी सुख दुःख मिलते हैं ?
उत्तर = जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख अपने कर्मों के फल होते है किन्तु अनेक बार दूसरे के कर्मों के कारण भी परिणाम प्रभाव के रूप में ( फल रूप में नहीं ) सुख दुःख प्राप्त हो जाते है |
४३) किन लक्षणों के आधार पर यह कह सकते है की किस व्यक्ति ने जीवात्मा का साक्षात्कार कर लिया है ?
उत्तर = मन, इन्द्रियों पर अधिकार करके सत्यधर्म न्यायाचरण के माध्यम से शुभकर्मों को ही करणा और असत्य अधर्म के कर्मों को न करना तथा सदा शांत, संतुष्ट और प्रसन्न रहना इस बात का ज्ञापक होता है की इस व्यक्ति ने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है |
*🚩🙌जय माँ आंदि शंक्ती जयमहाकांल 🙌🌻🚩*