Thursday, 22 September 2016

ब्रज रसिक गद्य भाव 1

ब्रज रसिकन भाव "पदरज" तृषित प्यास बुझाइए --

*‘गोपिनु कौ प्रेम परबत समान है, औरनि कौ प्रेम कूप वापी, तड़ाग, सरिता तुल्य है। अरू इनके रूप कौ उनमान जनाऊं। सर्वोपरि स्त्रीन में महालक्ष्‍मी कौ रूप हैं। ताके नख छटा की पार्वती, ताके नख छटा की ब्रह्माणी, ताके नख छटा की इंद्राणी, ताके नख छटा कौं सिंघल द्वीप, ताकौ यह जंबू द्वीप। सो लक्ष्‍मी व्रजदेवीन की नख दुति कों न पूजि सकैं। ते व्रजदेवी श्री जुगल किशोर के स्वरूप कौं निजु विहार है ताके दरसबे की अधिकारी नहीं, जाते उनको सपत्नी भाव अचल भयो है। ललितादिक बिनु नित्य विहार के देखिबे कौ कोई अधिकारी नहीं। इनको प्रेम सिन्धु समान है, जामें अनंत गिरि समाहिं ।*
***  *** *** *** ***  ***  ***  *
*‘सो यह सपत्नी भाव क्यों प्रगट भयो? जब वेद ने प्रभु की स्तु‍ति करी तब किशोर रूप प्रभु कौ दरसन भयौ। तब कमनीय मूर्ति देखि कामिनी भाव उपजि आयो। जो श्री ठकुरानी जी संयुक्त दरसन होतौ तौ दासी भाव उपजतौ। तातें श्री ठाकुरानी जी कौ केलि कौ दरसन नाहीं पाबतु।’*
***  *** *** *** ***  ***  ***  *
*‘कोऊ कहै कि दरसन की अधिकारी नाहीं तौ कलपतरू तीर जु रासरस रच्यौ तहां गोपी बुलाईं। सो रास तों श्री प्रियाजू विना होय नाहीं परम सुख की दरस नहीं भई। ताकौ समाधान हैं। द्वै-द्वै गोपिनु में एक-एक रूप धरि खेलें, तहां द्वै स्वरूप में एक गोपी भई। तौजु एक नाइका द्वै नाइक के स्वरूप कौ देखै तौ रसाभास होइ। तातै वै अपने-अपने रस में ऐसी निमग्न भईं जु एक स्वरूप सौं एक सुख मात भईं। ये न समभ्‍फ्‍ी इतने स्वरूप प्रगट हैं। जो जानै सो आपहीं सों संयुक्त जानैं। मधि युगल किशोर अरू सहचरी तिन्हैं कहां तैं देखै? अरू वे अपने सुख में इन्हें काहे कों देखै? यौं नित्य विहार कों लीला प्रकरण मिल्यौ है अरू न्यारौ है’।*

***  *** *** *** ***  ***  ***  *

*‘सर्वोपरि साधन यह है जो रसिक भक्त हैं तिनकी चरन रज बंदै । तिन सौं मिलि किशोरी-किशोर जू के रस की बातें कहै, सुनै निशि दिन अरू पल-पल उनकी रूप माधुरी विचारत रहैं। यह अभ्‍यास छौडे़ नहीं, आलस न करै। तौ रसिक भक्तनि कौ संग ऐसौ है आवश्‍यक प्रेम कौं अकुंर उपजै। जो कुसंग पशु तैं बचैं, जब ताईं अंकुर रहै। तब ता भजनई जल सौं सींच्यौ करै बारंबार। अरू सतसंग की बार दृढ़ कै करै तो प्रेम की बेलि हिय में बढै। फूलै जड़ नीके गहै तौ चिन्ता कछु नाहीं यह ही यतन है।’*

***  *** *** *** ***  ***  ***  *

*‘जहां नायक-नायिका बरनन कियो है, नायक अपनौ सुख चाहै नाइका अपनौ रस चाहै, सो यह प्रेम न होइ, साधारण सुख भोग है। जब ताई अपनौ-अपनौ सुख चाहिये तब ताई प्रेम कहां पाईयो। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रूचि, जब ताई प्रेम कहां पाईये है। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रूचि जब पाई एक न होंइ तब ताई प्रेम कहां?*

***  *** *** *** ***  ***  ***  *

*अनन्य अलि के स्वप्न विलास से एक स्वप्न* -
*‘इक दिन मोकों तुर आयौ। तातैं मेरी शरीर बहुत काहिल भयौ। कछु सुधि रही नहीं। तब हौं मानसी में लड़ैती कों ब्यारू करावनौ भूलिगयौ। तब मौकौं रात्रि आधी गयें पाछे नींद आई। तब मोकों सपने में कोऊ कुटी में, तै पुकारत हैं, ‘अनन्य अली लूं उठि हमकों ब्यारू कराव’ हम चड़ी बेरि के बैठि रहे हैं, बड़ी अबार भई है’। मैं सपने में सुनि के जागि उठयौ, चौकिं परयौ। सावधान भयौ तब मोकौं सुधि आई। तब मैं सुमिरन करि मन लगाइ ब्यारू कराई।’*

***  *** *** *** ***  ***  ***  *

*‘जब इच्छा होइ इह रस जीवनि कों दुर्गम है सो दिखाईये। तब कृपा करि अपनौ रस व्रज लीला द्वारा प्रगट करें। आप प्रगटैं तब धाम हु, परिकर हूं, प्रगटै। तहां अचिन्त्य शक्ति करि अप्रगट-प्रगट दोऊ लीला भई चली जांइ, नित्यता में कछु क्षति नांहि’*

***  *** *** *** ***  ***  ***  *
अतिवल्लभ जु को एक पद अनुवाद --
*नयौ नेह:-श्रृंगार रस के द्वै विभाग, एक संयोग एक वियोग। यह नयौ नैह एसौ जो संगोग में सदा रहै अरू बढ़नि नियोग सौं नाही, देखन सौं है। ज्‍यौ-ज्‍यौ देखै त्‍यौ-त्‍यौ बढे़, नित नयौ रहै, बढ़ानि निघटै नाहीं ।*

*नव रंग:- प्राप उज्‍ज्‍वल, श्‍याम कौं लाल करै, आप श्‍याम न होइ। ये तीनौ बात और रंगनि तैं नई हैं, तातैं नयौ रंग।*

*नयौ रस:- रस कहे श्रृगार रस । तकौ स्थाई भाव रति है। यह श्रृंगार लाला जू कौ स्वरूप है। या स्वरूप स्थाई प्रियाजी के रूप में है। हित संधित है, रति संधित नाहीं । यातैं नयौ रस है।*

*नवल श्‍याम वृषभान किशोरी :- प्रिया जी ने जा श्‍याम स्वरूप कौं अवलोकन कियौ सो काह ने न देख्‍यौ । अरू जा श्‍याम स्वरूप ने प्रिया जी कौं देख्‍यौ सो श्‍याम सदा एक सौ रहयौ, माधुर्य रस निमग्न । बाल, कौमार, पौगंड, अवतार, अवतारी सब नव किशोर स्वरूप में हैं। परन्तु माधुर्य रस अत्यन्त बलवान, उनमें वे कोऊ रूप प्रकाश न होंहि । तातैं दास्यभाव, वात्सल्यभाव और संख्‍यभाव वारेन वह रूप न देख्‍यौ और जे उज्जवल रस की अधिकारिनी व्रज में है तिन्हनि न देखे । यह श्‍याम कौ स्वरूप काहू के ने‍त्रनि पर न भयौं तातै नवल है।’*
‘ऐसे ही श्री वृषभानु नंदिनी जू को स्वरूप नवल हैं, तादृश श्‍याम सोई तौ देखैं और कोऊ श्‍याम हू न देखैं।‘

युगल कृपा ते और बतियाये कबहु युगल की रीत-प्रीत । मोहे कोई कोई खीजे रस वाणी न कहिये। कही को कहु , न कही कबहु न कहु । रसिक जन लिखत रहे रस - काम भेद पतो चले । हम सब ब्रज जावें , और लौट आवें , रोतो जाय मौन आय , जबहि घायल हो आय तबहि रस भेद खुले हैं , सब जावें भेड़ तांई भीड़ देख भागे पाछे-पाछे । रसिक और युगल भीड़ में कबहु मिले है का ? ब्रज विथिन में एकांत में निरखो ।  भाव विथिन -कुँजन छांडो , रसिक मिलन पे अभिनय करत हम सबहि भोगी जन , रस को अभिनय न होवे , रस को पान होवें जो युगल को रस पिय ही लेवे तब और का पिय? थूक सकें , दवा ताईं जबरन गटक सके युगल को होय पिबन ताईं तो युगल रस ही होवें । नित् देवी देवता मनाओ , गौ ब्राह्मण सन्तन सबन ते भीक्षा चाहो सबन ते कहो एक क्षण साचों युगल प्रीत रस दरसाय दे । एक क्षण साँचो जिय झुठो स्वाँग कौन कर सकें । पिय देखो , सुनत नाही , स्वयं पिय देखो । ऐसो न प्रगट होएगो युगल रस या ब्रज को रस जब ताईं साँची प्यास की अगन से सरबस्व झुठो मेरो भस्म होवै तबहि साँचे रस मधुर प्रिया-प्रियतम नैनन में , हिय में , जीवन में -अंग सुअंग में , स्वास स्वास में समाय जावें । -- सत्यजीत तृषित ।
मेरो भेद - इष्ट - अभीष्ट - सब सुख - सब रस - आश्रय-विषय सबहि *श्रीब्रजरजरानी*

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ

श्रित कमला कूचमण्डल ऐ ।

श्री किशोरी जी - कमले - आपकी आश्रय स्वरूपिणी श्री जी का कूच मण्डल आपका आश्रय है ।
श्यामसुन्दर के क्रीडाविलास की सिद्धि , उनकी प्रियसी वशता को कहता जयदेव जी के गीत का यह प्रथम भाव ... !
ईश्वरत्व की निश्चिन्तता को कहने के लिये भी उनकी रस लोलुप्ता को प्रकाशित किया जाता है । जो निश्चिन्त होगा वही रस-आतुर होगा । जिसे विभिन्न चिंतन सताये वह श्री प्रिया के स्तन मण्डल का आश्रय कैसे लेगा ?
यहाँ वन्दना श्यामसुन्दर की हो रही है और उन्हें प्रथम ही कमला के स्तन मण्डल का आश्रय लेने वाला कह कर उनकी रसमयता से रस आतुर भगवत् - पथिकों की और पिपासा की वृद्धि की गई है ।
सामान्य जन विचार कर सकते है कि ईश्वर कैसे रस लोलुप्त होंगे ? यह कूच मण्डल का आश्रय क्या जगत में ईश्वर की विषय सिद्धि करता है ?
विषयी और कामुक - वासनाओं घिरे हम इस बात को नहीँ समझ सकते है कि रस और काम में भेद क्या है ?
रसिक सन्त इस तरह की जयघोष सर्वप्रथम अपनी रचना में कर के विषयी जन को लौटा देते है और प्रेमी-बावरे जन को ही अग्रिम कदम बढ़ाने का संकेत करते है ।
काम वासना में डूबा तो यह प्रथम उक्ति से ही लौट जाता है , वह सोचता है जो स्वयं स्तन मण्डल का आश्रय लेता हो वह भगवान कैसे होगा ?
कुच मण्डल पर आश्रित ! आखिर कैसे ?
ब्रह्म-परमात्मा-भगवान के समस्त अध्ययन-मनन आदि को यही प्रथम पंक्ति चकित कर देती है ।
गीत-गोविन्द की रस सिद्धि को प्रकाशित करते हुये इस गीत का प्रथम पद ही ईश्वर के युगलतत्व का प्रकाशक है । रस और आनन्द के सारभूत सरोवर राशि श्यामसुन्दर की प्रथम विशेषता तो उनकी रसमयता और माधुर्यता ही है ।
श्री किशोरी जी उनकी आह्लादिनी शक्ति है । श्यामसुन्दर में जो आह्लाद है , उनके नाम-स्मरण-कीर्तन- दर्शन आदि से जो मन रंजित हो जाता है वह रञ्जनता , वह आह्लाद क्या जीव का है ? नहीँ वह तो उसी रस भुत श्यामसुन्दर का ही है और उनमें भी वह आह्लाद वह रस समुद्र आया कहाँ से ?
कमला से - श्री किशोरी से ...श्री किशोरी जी स्वयं रस-माधुर्य की सिंधु राशि की सारभूता होकर भी उसी रसमाधुर्यसार सिंधु से कमलिनी रूप प्रकाशित है अर्थात् सार रस और सार माधुर्य -सौंदर्य होकर भी वह श्यामसुन्दर को जलराशि की सौंदर्य निधि की भाँति कमल की तरह ही अति विशेष रस-माधुर्य-सौंदर्यता से अभिसार करने हेतु कमला है । कमलवासिनी , कमलरूपिणी का अर्थ है रस-माधुर्य -सौंदर्य की सार राशि का प्रकाशित कमल स्वरूप ।
कमल जलराशि से ही सौंदर्य माधुर्य से प्रकाशित है , वैसे ही पूर्ण रससार सिंधु , माधुर्य-सौंदर्य सार सिंधु होकर भी उसी का अत्यंतम सार स्वरूप दिव्य कमल है ।
और उसी आह्लादिनी की शक्ति के आश्रय से सत्-चित्-आनन्द भगवान आनन्द रूप है । उनमें आनन्दत्व का जो प्रकाश है वह आया है उनकी रसपिपासा से । शास्त्र स्वयं उन्हें रस भुत सार कह कर मौन हो जाता है , रसो वै सः । परन्तु अत्यंत रस पिपासु ही रसभुत हो सकता है । श्यामसुन्दर का निज रस भी आह्लादिनी के प्रकाश से है । श्यामसुन्दर का रस स्वरूप प्रकाशित हुआ क्योंकि अगर यह रस उन्हें कहीं से प्राप्त न होकर उनके ही भीतर प्रकट होता , वह उनके अन्तः में वासित श्री आह्लादिनी का रस न होता तो वह रस इसतरह प्रकाशमय नही होता । जैसे वर्षा के जल से व्यक्ति स्पष्ट भिगा हुआ दिखाई दे देता है वैसे ही रस में भीगे भगवान का यह रस , यह आह्लाद , यह लावण्य , यह माधुर्य जिस शक्ति से प्रकट हुआ है वह उनकी आंतरिक आह्लादिनी शक्ति है । आंतरिक आह्लादिनी शक्ति ही अनन्त रस आह्लाद से स्वरूपित हो प्रकट रूप में श्री किशोरी जी है जो कि भगवान की ही अन्तः रस वस्तु है ।
जिस तरह जीव में चेतना का वास और उसकी ही आह्लाद आदि शक्तियों से जीव का जीवन विकसित होता है वैसे ही आह्लादिनी की आंतरिक और बाह्य श्रीकिशोरी जु की तरँग आदि से ईश्वरत्व का भी विकास होता है । जिस तरह जीव नित्य नव जीवन का पिपासु है वैसे ही रस रूप श्यामसुन्दर नित नव रस पिपासु है अतः यहाँ कुच मण्डल का आश्रयभुत उन्हें कहा गया है । यह स्तन मण्डल ही रस-माधुर्य के सार रूप यहाँ कहे गए है । भाव रूप हृदय के स्पर्श हेतु बाहरी देह में स्तन का स्पर्श होगा , हृदय के आह्लाद से ही कुच मण्डल विकसित होते है वास्तविक स्पर्श और आश्रय तो यहाँ हृदय मण्डल का है । परन्तु रसिक की बात रसिक ही समझें अतः दैहिक विषय को प्रकाशित किया गया है । श्यामसुन्दर का सम्पूर्ण वास तो श्री किशोरी जु का अन्तः हृदय ही है अतः वह किशोरी हृदय वस्तु होने से किशोरी इच्छा से प्रकाशित होने से उनके हृदयमण्डल के आश्रयत्व है । जैसे जीव आत्मा की सत्ता से दृश्य है अतः उसे स्थूल आदि दृश्य होने के लिये उसकी आश्रय शक्ति की आवश्यकता है ही । आत्मा जब देह त्याग कर देती है तब देह स्वभाविक प्रकाश नही हो सकती । अतः ब्रह्म को परमात्मा और परमात्मा को और भी सार भुत साकार स्वरूप देने में जो सामर्थ्य और शक्ति लगी है वह आह्लाद वृत्ति है अर्थात् श्री किशोरी जी के रस से ही श्यामसुन्दर ब्रह्म से भगवान हुए है और जिस शक्ति के आह्लाद से वह निराकार से साकार प्रकाशित हो गए उसी शक्ति के प्यासे भी हो गये है । जैसे जल निराकार तत्व है उसमें सौंदर्य-माधुर्य सब है , जब जल का सौंदर्य आह्लादित होकर कमल रूप में प्रकट हो तब वह जल के सार तत्व का साकार रूप ही है और साकार होने पर अब उसे उस जल के आह्लाद शक्ति की पिपासा और गहरा गई है वह और आह्लादित होकर और प्रकाशित - और खिलना चाहता है ।
और हाँ बाहर की वस्तु से कमल का प्रस्फुरण सम्भव नहीँ , वैसे ही अनन्त शक्ति भगवत् तत्व से बाह्य है परन्तु जो शक्ति उनकी आंतरिकता में है वह ही उनके नित्य प्रस्फुरण का कारण है । श्री कृष्ण तत्व असहज इसलिये भी है क्योंकि वह नित्य पूर्ण होकर भी नित्य नव लीला से नित्य प्रस्फुरित होते रहते है । "सत्यजीत तृषित" ।  जयजयश्यामाश्याम ।

Tuesday, 20 September 2016

भगवत्कृपा से ही भगवत विरह और व्याकुलता, तृषित

भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों को ब्रह्मानन्द तक के सुख आनन्द से उद्धार कर लेते हैं । इस समय गहन पिपासु जीव विरहभाव आत्यंतिक तीव्रता पाकर तीव्र अनल (अग्नि) की भाँति दग्ध करता है । यह क्लेश देह आदि के नाश में समर्थ है । भगवत् विरह स्वर्ण से कुंदन होने की वृत्ति है । इसके आगे समस्त उपाय उतनी शुद्धता नहीं करते । दूसरे के द्वारा दी अग्नि की उतनी भीतरी पहुँच नहीँ , भगवत् विरही तो सजीव भस्मीभूत ही  हो जाता है ।
इस तीव्र विरह की की अवस्था में भगवान भक्त के अपने अधिकार के अनुसार उसे अपने भाव के उपयोगी परमानन्द-लीला का अनुभव करा के विरह का उपशम करा देते है ।

जीव ब्रह्म के साथ ऐक्य लाभ कर लेने पर भी भगवान की शक्ति द्वारा पृथक् किया जा सकता है ।
यह पृथकता वास्तविक पृथक् करना नहीँ ,लीला रस के आस्वादन के लिये अपने अपने स्वभाव का विकास भर है ।
प्रत्येक जीव की आकृति , प्रकृति , भाव , गुण , क्रिया पृथक्-पृथक् हैं । यें सभी नित्य और अचिन्त्य है , प्रत्येक जीव का स्वभाव भी ठीक वैसा ही है । इन दोनों स्वभावों के खेल से ही अनन्त भगवत्-लीला में अपरिसीम माधुर्य है ।
भगवत् अनुग्रह ही समस्त व्याकुलताओं का निवारण कर सकता है ।
भगवत् प्रीत , भगवत् व्याकुलता , भगवान की उत्कंठा और राग मयी भक्ति की प्राप्ति भगवान की अनुकम्पा - अनुग्रह या कृपा शक्ति से ही सम्भव है ।
भगवान के दिव्य विशेष अनुग्रह से केवल भगवत्-स्वरूप की प्राप्ति होती है अर्थात् लीला भाव में प्रवेश ।
पुष्टि भक्ति 4 प्रकार की होती है उसमें चौथी है शुद्ध पुष्टि । यहाँ अर्थ भगवान के अनुग्रह की पूर्णतम पुष्टता से है । जहाँ भीतर सर्व अणु परमाणु रूप अनुग्रह ही उतर जावें और गहनतम भगवत् प्रेम हो जावें समस्त बाधा - दोष - सीमाएं पिघल जावें । शुद्ध पुष्टि ऐसी अवस्था है जिसे किसी साधना से प्राप्त नही किया जा सकता । चेष्टाओं से जो प्राप्त है वह पूर्णतम भगवत् अनुग्रह नहीँ है । भगवत् कृपा से का वास्तविक स्वरूप तो एकमात्र अनन्त भगवत्प्रीति ही प्रदायक है । भौतिक जीवन के साधन को भगवत्कृपा कहने वाले हम किसी खिलौने को ही सच्चा वाहन समझते है ।
हमने अभी कही पढ़ा कि किन्हीं ने कहा भगवत् व्याकुलता या उत्कंठा पूर्व के पुण्यों का परिणाम है ।
वास्तव में विशुद्ध भीतर की भगवत् व्याकुलता या उत्कंठा अथवा लोलुप्ता या प्यास कुछ भी कहिये यह साधन की वस्तु है ही नहीं भगवत् व्याकुलता का कोई साधन नही है केवल भगवत्कृपा ही इसका हेतु है । जीव को वास्तविक प्यास का अनुमान होना भी पुण्यों के बस की बात नहीँ यह अनन्त पुण्यों के परिणाम के संग विशेषतः भगवत् कृपा है । जो जितना भगवत्कृपा का आदर को सेवन करता है उसका उतना ही पूर्णतः विकास हो सकता है । और सर्व रूप वहाँ साधन भगवत्कृपा है ।
जिस शुद्धा भक्ति और दिव्य रस की व्याकुलता का हेतु एकमात्र भगवत्कृपा या अनुग्रहता है , वहाँ पूर्ण भक्ति- प्रेम और रस की प्राप्ति का द्वितीय कोई साधन कैसे हो सकता है ।
जो प्रीत आग ही कृपा से लगी हो उसपर पकाया रस और प्राप्त पुष्टि का हेतु एक मात्र हेतु भगवत् अनुग्रहता है । भगवत् कृपा का महाफल भगवत्प्रीत की व्याकुलता है यह साधन आश्रय से नहीँ अनन्त पुण्यों के भोग त्याग के किन्हीं भावनाओं से प्रसन्न भगवान की विशेष प्रेम दृष्टि का परिणाम है ।
सत्यजीत तृषित ।
जयजय श्यामाश्याम ।

वो रस कहाँ से लाऊँ जो सूर्य को भीगो देवे

वो अग्नि कहाँ से लाऊँ जो जल को अनल बना देवें

मिट्टी बन खूब उडी पर सूरज न हाथ आया था

जब उड़ती उड़ती कही थक गई तब चिकनाई कोई लाया था

फिर आया कुमार कोई बना दिया दीपक मुझे

कभी मुझमें ज्योति होगी वह उस सूर्य से ही तब मुझमें होगी

मिट्टी नहीँ घुली थी सूरज में , उसमें घुलने को उसकी ही ज्योति होगी

वेद मन्त्र तब करेगा आवाहन मेरी छोटी ज्योति में सूर्य चन्द्र का

तब होगी अनुकम्पा मुझमें आकर चुरा लें जाने की

जिसे पाना हो उसे तुममें उतना उतरना होगा जितना तुम मचले थे कभी ...
सत्यजीत तृषित ।

सम्बन्ध जहाँ वहाँ प्रियता और प्रिय का ही स्मरण , तृषित

हमारा सम्बन्ध कहाँ होता है जहाँ विश्वास हो । बिना विश्वास सम्बन्ध नहीं रहता है । जिससे सम्बन्ध हो वहीँ प्रिय होगा । पहले विश्वास हो फिर सम्बन्ध हो , जिससे सम्बन्ध है वह स्वतः प्रिय है और जो प्रिय है उन्हीं का स्मरण होता है । हम कहते है भगवान की याद नही आती , याद उसकी आएगी जो प्रिय होगा । भोग प्रिय है तो वही याद रहेंगे ।
जो प्रिय है उसका स्मरण है , और जिसका स्मरण चित् उसी का चिंतन करेगा । हमें भगवान प्रिय नही हो तो हम चिंतन का अभिनय करेगें स्वतः नही होगा , घण्टों माला लेकर घूमते रहेंगे चित् वही होगा जो प्रिय है । आज प्रदर्शनात्मक भक्ति का युग है । चलते फिरते जाप का अर्थ यह नही कि बैठ कर आसन पर करना मना ही है । जब बैठने का अवसर और समय हो तब भी टहलने आदि से चेतना दो जगह बहती है एक तो टहलने में और एक जप में , मन को नियंत्रित करना है , उसके अनुरूप नहीँ गमन करना है । हाँ आसन पर करने के उपरान्त सदा वाणी से भगवत् चिंतन होता रहे । करना न पड़े , होता रहे । संसार में हमें अपने किसी पारिवारिक व्यक्ति के शांत होने पर उनके न होने पर भुलाने का चिंतन करना होता है और वह भुलाने की अपेक्षा और गाढ़ता ले लेता है , वही व्यक्ति ही सोते-जागते- खाते-पीते समय आँखों के सामने रहता है । चित् उस मृत सम्बन्धी के चिंतन में स्वतः डूब जाता है , हमें सब आता है , बस हम भगवान के लिये अभिनय और संसार के लिये मन से वह सब करते है ।
... तो प्रिय जो हो उसी की स्मृति होती है और वही स्मृति पुनरावतन से चिंतन हो जाती है । चिंतनीय पदार्थ या व्यक्ति हमारे हृदय को द्रवीभूत कर उस पर छप जाते है । यह सब स्वभाविक होता है , प्रियता से नित्य स्मरण जैसे लम्बे समय घर से जाने पर कोई स्त्री स्वभाविक पति का स्मरण करें उसे स्मरण के लिये साधन की आवश्यकता नहीँ रहती कि वह माला लेकर पति के स्वरूप - नाम - गुण आदि का स्मरण फिर चिंतन करती हो । भगवान प्रिय नहीँ हमारे प्रियता जगत में है अतः मन को लगाने हेतु साधन है । भगवत् चिंतन हो जावें तब वह चिंतन ही ध्यान हो जाता है ।
ध्यान का अर्थ की चिंतनीय वस्तु ही ध्येय रह जावें , चिंतन होते-होते वही वस्तु या पदार्थ अन्तःकरण पर छप जाता है । भगवान के नाम-गुण-रूप के चिंतन से वहीँ के रह जाते है जिसे भीतर और बाहर नेत्र देखना चाहे , बाहर भिन्नता से भीतर चिंतन और गाढ़ता लेता है । ध्यान में चिंतनीय वस्तु में चित् स्वयं को विस्मरण कर ही देता है और इस तरह चिंतन से ध्यान और ध्यान से उसी में समाधि लग जाती है । चित् सभी उपाधियों से छुट एक प्रिय वस्तु में डूब जाता है जैसे समुद्र में जल की सत्ता में मिट्टी आदि भी जल में घुल मिल कर जल संग क्रियांवित हो लहरों में गमन करते है । मिट्टी और जल भिन्न होकर भी सम्बंधित हो प्रियता से अभिन्न हो जाते है जबकि तब भी रहते पृथक ही है जल मृदा नही हो सकता , मृदा जल नही हो सकती और यहीं व्याकुलता जल के रंग को मिट्टी के रंग में रंग देती है ।
प्रेमियों की समाधि चन्दन और पानी सी होती है जहाँ रसवर्धन दोनों और होता है , प्रभु जी तुम चन्दन मैं पानी ।
मिट्टी और जल वाले मिलन की तरह मिलकर भी पूर्ण रूप से एकत्व न होने से प्रेमी साधक बैचेन होता है । स्वरूपतः भिन्नता से मिट्टी का स्वरूप जल में घुल कर भी उसकी पृथक सत्ता अनुभूत करा देता है । जल तो रंग रूप सब बदल लेता है पर मिट्टी जब तक मिट्टी है तब तक जल नहीँ हो पाती । अतः अब यहाँ प्रेमी साधक समाधि पर भी बैचेन हो बीच का स्थूल देह रूपी देह भी गलित करने को बैचेन होते है और तब जाकर विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है । जड़ से आंतरिक सम्बन्ध छुट जाता है और नित्य चेतन में पूर्ण समावेश हो जाता है ।
जैसे मिट्टी अपना गुण भूल जल के संग से मूर्त हो जाती है , बिखरना -उड़ना आदि छुट जाता है । जल संग नहीँ होता परन्तु जल के संग की अभिव्यक्ति से मिट्टी का गुण बदल जाता है और वह थिर हो जाती है , बाहरी थिरता के पीछे सदा भीतर का रस प्रवाह होता है । अपने स्वरूप और गुण की विस्मृति से वह मिट्टी भी प्रति अणु भिन्न क्रिया उपादान को त्याग एक हो स्वयं में जलत्व को तलाशती एक हो जाती है , स्वभाव से रज का प्रत्येक अणु अलग होता ही है न परन्तु यहां वह जल के प्रभाव से अपने स्वरूप को भूल जल के मिलन से दिए स्वरूप में स्थिर हो जाती है । मन भी ऐसे अनेकों धाराओं में बहता है , वह भी जब सिमट कर भगवत् अनुराग रूपी गोंद से भगवान के चरणारविन्द में समा जावें तब वह निर्मल प्रीत को अनुभूत करता है जहाँ वह भगवत् सत्ता से स्वयं को उसी में उनके ही प्रकाश और रस से स्वयं उन्हीं की वस्तु पाता है और अभिन्न भी पाता है , दोनों सम्भव है अभिन्नता में अद्वैत और भगवत् वस्तु रूप भिन्नता में द्वेत है । दोनों ही रसवर्धक है , यथा भावना दोनों प्रकट हो सकते है । सत्यजीत तृषित ।

सम्बन्ध जहाँ वहाँ प्रियता और प्रिय का ही स्मरण , तृषित

हमारा सम्बन्ध कहाँ होता है जहाँ विश्वास हो । बिना विश्वास सम्बन्ध नहीं रहता है । जिससे सम्बन्ध हो वहीँ प्रिय होगा । पहले विश्वास हो फिर सम्बन्ध हो , जिससे सम्बन्ध है वह स्वतः प्रिय है और जो प्रिय है उन्हीं का स्मरण होता है । हम कहते है भगवान की याद नही आती , याद उसकी आएगी जो प्रिय होगा । भोग प्रिय है तो वही याद रहेंगे ।
जो प्रिय है उसका स्मरण है , और जिसका स्मरण चित् उसी का चिंतन करेगा । हमें भगवान प्रिय नही हो तो हम चिंतन का अभिनय करेगें स्वतः नही होगा , घण्टों माला लेकर घूमते रहेंगे चित् वही होगा जो प्रिय है । आज प्रदर्शनात्मक भक्ति का युग है । चलते फिरते जाप का अर्थ यह नही कि बैठ कर आसन पर करना मना ही है । जब बैठने का अवसर और समय हो तब भी टहलने आदि से चेतना दो जगह बहती है एक तो टहलने में और एक जप में , मन को नियंत्रित करना है , उसके अनुरूप नहीँ गमन करना है । हाँ आसन पर करने के उपरान्त सदा वाणी से भगवत् चिंतन होता रहे । करना न पड़े , होता रहे । संसार में हमें अपने किसी पारिवारिक व्यक्ति के शांत होने पर उनके न होने पर भुलाने का चिंतन करना होता है और वह भुलाने की अपेक्षा और गाढ़ता ले लेता है , वही व्यक्ति ही सोते-जागते- खाते-पीते समय आँखों के सामने रहता है । चित् उस मृत सम्बन्धी के चिंतन में स्वतः डूब जाता है , हमें सब आता है , बस हम भगवान के लिये अभिनय और संसार के लिये मन से वह सब करते है ।
... तो प्रिय जो हो उसी की स्मृति होती है और वही स्मृति पुनरावतन से चिंतन हो जाती है । चिंतनीय पदार्थ या व्यक्ति हमारे हृदय को द्रवीभूत कर उस पर छप जाते है । यह सब स्वभाविक होता है , प्रियता से नित्य स्मरण जैसे लम्बे समय घर से जाने पर कोई स्त्री स्वभाविक पति का स्मरण करें उसे स्मरण के लिये साधन की आवश्यकता नहीँ रहती कि वह माला लेकर पति के स्वरूप - नाम - गुण आदि का स्मरण फिर चिंतन करती हो । भगवान प्रिय नहीँ हमारे प्रियता जगत में है अतः मन को लगाने हेतु साधन है । भगवत् चिंतन हो जावें तब वह चिंतन ही ध्यान हो जाता है ।
ध्यान का अर्थ की चिंतनीय वस्तु ही ध्येय रह जावें , चिंतन होते-होते वही वस्तु या पदार्थ अन्तःकरण पर छप जाता है । भगवान के नाम-गुण-रूप के चिंतन से वहीँ के रह जाते है जिसे भीतर और बाहर नेत्र देखना चाहे , बाहर भिन्नता से भीतर चिंतन और गाढ़ता लेता है । ध्यान में चिंतनीय वस्तु में चित् स्वयं को विस्मरण कर ही देता है और इस तरह चिंतन से ध्यान और ध्यान से उसी में समाधि लग जाती है । चित् सभी उपाधियों से छुट एक प्रिय वस्तु में डूब जाता है जैसे समुद्र में जल की सत्ता में मिट्टी आदि भी जल में घुल मिल कर जल संग क्रियांवित हो लहरों में गमन करते है । मिट्टी और जल भिन्न होकर भी सम्बंधित हो प्रियता से अभिन्न हो जाते है जबकि तब भी रहते पृथक ही है जल मृदा नही हो सकता , मृदा जल नही हो सकती और यहीं व्याकुलता जल के रंग को मिट्टी के रंग में रंग देती है ।
प्रेमियों की समाधि चन्दन और पानी सी होती है जहाँ रसवर्धन दोनों और होता है , प्रभु जी तुम चन्दन मैं पानी ।
मिट्टी और जल वाले मिलन की तरह मिलकर भी पूर्ण रूप से एकत्व न होने से प्रेमी साधक बैचेन होता है । स्वरूपतः भिन्नता से मिट्टी का स्वरूप जल में घुल कर भी उसकी पृथक सत्ता अनुभूत करा देता है । जल तो रंग रूप सब बदल लेता है पर मिट्टी जब तक मिट्टी है तब तक जल नहीँ हो पाती । अतः अब यहाँ प्रेमी साधक समाधि पर भी बैचेन हो बीच का स्थूल देह रूपी देह भी गलित करने को बैचेन होते है और तब जाकर विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है । जड़ से आंतरिक सम्बन्ध छुट जाता है और नित्य चेतन में पूर्ण समावेश हो जाता है ।
जैसे मिट्टी अपना गुण भूल जल के संग से मूर्त हो जाती है , बिखरना -उड़ना आदि छुट जाता है । जल संग नहीँ होता परन्तु जल के संग की अभिव्यक्ति से मिट्टी का गुण बदल जाता है और वह थिर हो जाती है , बाहरी थिरता के पीछे सदा भीतर का रस प्रवाह होता है । अपने स्वरूप और गुण की विस्मृति से वह मिट्टी भी प्रति अणु भिन्न क्रिया उपादान को त्याग एक हो स्वयं में जलत्व को तलाशती एक हो जाती है , स्वभाव से रज का प्रत्येक अणु अलग होता ही है न परन्तु यहां वह जल के प्रभाव से अपने स्वरूप को भूल जल के मिलन से दिए स्वरूप में स्थिर हो जाती है । मन भी ऐसे अनेकों धाराओं में बहता है , वह भी जब सिमट कर भगवत् अनुराग रूपी गोंद से भगवान के चरणारविन्द में समा जावें तब वह निर्मल प्रीत को अनुभूत करता है जहाँ वह भगवत् सत्ता से स्वयं को उसी में उनके ही प्रकाश और रस से स्वयं उन्हीं की वस्तु पाता है और अभिन्न भी पाता है , दोनों सम्भव है अभिन्नता में अद्वैत और भगवत् वस्तु रूप भिन्नता में द्वेत है । दोनों ही रसवर्धक है , यथा भावना दोनों प्रकट हो सकते है । सत्यजीत तृषित ।